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बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में किलेबन्दी का चित्रात्मक वर्णन


दुर्गबन्दी या किलाबंदी (fortification) शत्रु के प्रतिरोध और उससे रक्षा करने की व्यवस्था का नाम होता है। इसके अन्तर्गत वे सभी सैनिक निर्माण और उपकरण आते हैं जो अपने बचाव के लिए उपयोग किए जाते हैं (न कि आक्रमण के लिए)। वर्तमान समय में किलाबन्दी सैन्य इंजीनियरी के अन्तर्गत आती है। यह दो प्रकार की होती है: स्थायी और अस्थायी। स्थायी किलेबंदी के लिए दृढ़ दुर्गों का निर्माण, जिनमें सुरक्षा के साधन उपलब्ध हो, आवश्यक है। अस्थायी मैदानी किलाबंदी की आवश्यकता ऐसे अवसरों पर पड़ती है जब स्थायी किले को छोड़कर सेनाएँ रणक्षेत्र में आमने सामने खड़ी होती हैं। मैदानी किलाबंदी में अक्सर बड़े-बड़े पेड़ों को गिराकर तथा बड़ी बड़ी चट्टानों एवं अन्य साधनों की सहायता से शत्रु के मार्ग में रूकावट डालने का प्रयत्न किया जाता है।


द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह निष्कर्ष निकला कि स्थायी किलाबंदी धन तथा परिश्रम की दृष्टि से ठीक नहीं है; शत्रु की गति में विलंब अन्य साधनों से भी कराया जा सकता है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि इसका महत्व बिल्कुल ही खत्म हो गया। अणुबम के आक्रमण में सेनाओं को मिट्टी के टीलों या कंकड़ के रक्षक स्थानों में आना ही होगा। नदी के किनारे या पहाड़ी दर्रों के निकट इन स्थायी गढ़ों का उपयोग अब भी लाभदायक है। हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि आधुनिक तृतीय आयोमात्मक युद्ध में स्थायी दुर्गो की उपयोगिता नष्ट हो गई है।




अनुक्रम





  • 1 इतिहास


  • 2 संदर्भ ग्रंथ


  • 3 इन्हें भी देखिये


  • 4 बाहरी कड़ियाँ




इतिहास


प्राचीन भारतीय किलाबंदी का प्रारंभ वप्र से होता है। वप्र भू की परिकल्पना के लिए पुर के चारों ओर परिखाएँ (खाई) (1, 2 या 3) खोदी जाती थीं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा समरांगणसूत्रधार में चारों ओर तीन-तीन परिखाओं के खनन का निर्देश है। पारिखेयी भूमि की व्यवस्था नगर मापन का प्रथम अंग रहा है। परिखाओं के खनन से निकली हुई मिट्टी के द्वारा ही वप्र भू की रचना की जाती थी।


किंतु मध्यकाल में राजपूत लोग किलाबंदी को अधिक महत्व नहीं देते थे। आमने-सामने तलवारें चलाकर प्राण त्याग देना ही वे अपने लिए गर्व का विषय समझते थे। तुर्कों की युद्धविद्या में स्थायी तथा अस्थायी दोनों ही प्रकार की किलाबंदी का उल्लेख मिलता है। फ्ख्रा मदब्बिर ने आदाबुल हर्ब हवुजाअत में दो प्रकार की किलाबंदियों को उल्लेख किया है : एक में ऐसे किलों की चर्चा मिलती है जो भूमि के नीचे सुरंग बनाकर तैयार किए जायँ तथा सुरंग में मार्ग बना लिया जाए। उन सुरंगों से किसी जंगल अथवा नदी के बाहर निकलने में सुविधा होती थी। इस्माइली इस प्रकार की किलाबंदी को बड़ा ही महत्वपूर्ण बताते हैं। दूसरे प्रकार की किलाबंदी के प्रंसग में उसने ऐसे किलों का उल्लेख किया है जो जमीन के ऊपर ऐसे स्थल पर बने हों जहाँ सुरंग न बन सकती हों। किलाबंदी के संबंध में उसने ऐसे नगरों का उल्लेख किया है जो किले के समान हों और जिनमें वे समस्त वस्तुएँ उपलब्ध हों जो किले में होती हैं।


मध्यकालीन भारतीय इतिहास में दक्षिण के युद्धों के विवरण में ऐसी मैदानी किलाबंदी का उल्लेख मिलता है जिसे कटघर अथवा कठगढ़ कहते हैं। यह एक प्रकार के लकड़ी के किले होते थे जो काँटों आदि से मैदान में युद्ध के लिए तैयार कर लिए जाते थे। खारबंदी शब्द का भी प्रयोग इसी अर्थ में हुआ है।


रोमन सैनिकों को शिक्षा दी जाती थी कि वे रात्रि में शिविर लगाते समय खाइयाँ किस प्रकार खोदें और बर्छी तथा नुकीले छड़ों से किलाबंदी किस प्रकार करें। शिविर की रक्षा हेतू प्रत्येक सैनिक के कार्य पृथक्‌ पृथक्‌ होते थे। कभी कभी आधी सेना शत्रु से युद्ध करने में संलग्न हो जाती थी और शेष आधी किसी ऊँचाई पर किलाबंदी के लिए पहुँच जाती थी। नुकीले छड़ों का बाड़ा कुछ नीचा रखा जाता था ताकि उनके पीछे से सैनिक ढाल द्वारा अपनी रक्षा कर सकें। जूलियस सीज़र के गॉल के अभियानों में 14 मील लंबी दीवारों के निर्माण का उल्लेख मिलता हैं।


13वीं सदी ईसवी में मंगोलों ने यूरोप में मैदानी किलाबंदी की व्यवस्था को पुन: प्रचलित किया। तैमूर ने भारतवर्ष पहुँचकर दिल्ली पर आक्रमण करने के पूर्व जिस मदानी किलाबंदी की व्यवस्था कराई उसे 'पुश्तए बहाली' कहते हैं। उसने वृक्षों की डालियों तथा छप्परों से दीवारें तैयार कराईं। खाई के समक्ष भैंसों को, गरदन और पाँव बाँधकर डाल दिया। छप्पर के पीछे लगा दिए। जब भारतीय हाथियों की पंक्तियाँ आगे बढ़ी तब उसने सुरक्षा के लिए अपनी सेना की पंक्ति को सामने से खंभों की पंक्ति द्वारा सुरक्षित करा दिया। लोहे के बहुत बड़े-बड़े काँटे तैयार करवाकर पदातियों को इस आशय से दे दिए कि जब हाथी आक्रमण करें तो वे उन काँटों को हाथियों के सामने डाल दें। बंदूक तथा गोले बारूद के आविष्कार के कारण बाबर ने पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी की बहुत बड़ी सेना से टक्कर लेने के लिए जिस प्रकार किलाबंदी कराई उसके विषय में वह स्वयं लिखता है कि हमारे दाईं ओर पानीपत नगर तथा उसके मुहल्ले थे। हमारे सामने गाड़ियाँ तथा तोरें (एक प्रकार की ऊँची तिपाइयाँ) थीं, जिन्हें हमने तैयार कराया था। बाईं और तथा अन्य स्थानों पर खाइयाँ एवं वृक्ष की शाखाएँ थीं। एक एक बाण पहुँचने की दूरी तक इतना स्थान छोड़ दिया गया था कि 100-100, 200-200 अश्वारोही वहाँ से छापा मार सकें।





येरुसलम की दुर्गबन्दी





कांस्टैंटिनोपुल की दुर्गबन्दी


यूरोप में नेपोलियन को कई स्थायी दुर्गों पर घेरा डालने का विवश होना पड़ा था किंतु चेष्टा यही होती थीं कि वह अपने स्वनिश्चित रणक्षेत्र में शत्रु को ले आए। फ्रीडलैंड के अभियान में रूसी सेनानायक काउंट बान बेनिग्सन ने बाल्टिक सागर से पृथक्‌ हो जाने पर एक शिविर में शरण ली जहाँ उसने तत्काल ही अस्थायी किलाबंदी की व्यवस्था कर ली। नेपोलियन इस अस्थायी मोर्चाबंदी का सही अनुमान न लगा सका और उसने अपने सैनिक आक्रमण के लिए भेज दिए, परंतु वे पराजित हो गए। नेपोलियन ने नए सैनिक भेजकर पुन: आक्रमण किया, किंतु अँधेरा हो जाने के कारण प्रयत्न त्याग देना पड़ा।


अमरीका में गृहयुद्ध के समय अमरीकों के पास समुद्रीय तट के अतिरिक्त कहीं भी स्थायी दुर्ग न थे। सैनिक या तो पत्थर की दीवार के पीछे या, खाइयाँ खोदकर शत्रुओं से युद्ध करते थे। विक्सबर्ग तथा पीट्सबर्ग की घेराबंदियों में खाईं युद्ध की व्यवस्था अपनाई गई। विक्सबर्ग का घेरा लगभग एक साल तक चलता रहा।


प्रथम विश्वयुद्ध में किलों ने सेनाओं को संगठित करने तथा शत्रुओं के आक्रमण में विलंब डालने में बड़ी सहायता की। फ्रांस तथा बेल्जियम के दुर्गों की व्यवस्था इस ढंग से की गई थी कि उनके द्वारा शत्रुओं को आगे बढ़ने से रोका जा सके, साथ ही उनपर आक्रमण करने में सुविधा हों।


स्विटजरलैंड की सीमा से इंग्लिश चैनल तक की 600 मील की दूरी में दो प्रकार की खाइयाँ एक दूसरे के सम्मुख थीं। दिसंबर 1914 से मार्च 1918 तक की अवधि में ये लहरदार खाइयाँ किसी भी एक स्थान पर 10 मील से अधिक की दूरी तक नहीं हटी थीं, सिवा एक स्थान के जिसे जर्मनों ने स्वेच्छा से छोड़ दिया था ताकि अपनी पंक्तियों को एक सीध में कर लें। प्रथम विश्वयुद्ध के समय कुछ आधुनिक किले जर्मनों की गोलाबारी को सभी प्रकार झेल गए। साथ ही, इनमें सैनिकों की भी अधिक आवश्यकता नहीं पड़ी। इस अनुभव से फ्रांसीसियों को माजिनोलाइन नामक किलेबंदी के निर्माण के लिए प्रेरित किया जो जर्मनों के आक्रमण से स्थायी रूप से रक्षा कर सके। पूर्व में जो गोलाकार किलाबंदी की व्यवस्था होती थी इस आधुनिक किलाबंदी में भी लक्षित थी, परंतु इसकी मुख्य विशेषता रेखावत्‌ मोर्चाबंदी की व्यवस्था ही थी। सेनाओं की दृष्टि से माजिनो लाइन गत मोर्चाबंदी व्यवस्था से कहीं श्रेयस्कर थी। इसमें कंकड़ इत्यादि भी काफी मोटा लगाया गया था और इसकी तोपें भी विशालकाय थीं। साथ ही इसमें वातानुकूलित भाग भी सेनाओं के लिए थे और कहा जाता हैं कि यह किसी भी आधुनिक नगर में कम आरामदेह न थी। इसमें मनोरंजन के स्थानों, रहने के लिए मकानों, खाद्य-भंडार-गृह और भूमिगत रेल की पटरियों की भी व्यवस्था थीं। गहराई में कुछ ऐसे सुदृढ़ स्थान भी बना दिए गए थे जहाँ आवश्यकता पड़ने पर रेल द्वारा सेना जा सकती थी।


जर्मनों ने भी 1936 में राइनलैंड की किलाबंदी सीगाफ्रड लाइन द्वारा की। इस रेखा में लोहे तथा कंकड़ से रक्षात्मक स्थान बनाए गए थे और उन स्थानों के आगे जर्मनों की पूरी सीमा तक कंकड़ तथा लोहे के अवरोधक स्थान भी बना दिए गए थे। रूस ने पोलैंड के विरुद्ध जो किलाबंदी की और जिसे स्तालिन लाइन कहते हैं, वह माजिनों लाइन के नमूने पर ही बनी थी।


इन नवीन गढ़बंदियों में कई बातें ध्यान में रखी गई थीं। लोहे तथा कंकड़ के अवरोधक टैंकों की गति को रोकने के लिए ही नहीं अपितु जलमग्न क्षेत्रों तथा जंगलों में भी पहँचने के मार्गों का सरण्मािन्‌ करने के लिए प्रयोग में लाया गया था। वायुयानों के आक्रमण से रक्षा करना भी आवश्यक समझा गया था। इसके लिये विस्तृत टेलीफोन व्यवस्था, सर्चलाइट तथा भारी तोपों को लगाने का प्रबंध किया गया था। वायुयानों द्वारा न देख जाने तथा शत्रुओं की स्थलसेना को धोखा देने के लिए छिपने की व्यवस्था करना भी महत्वपूर्ण माना गया। मित्रराष्ट्रों ने समझा था कि उनको किलेबंदी की यह व्यवस्था शत्रुओं के आक्रमण को रोकने और झेलने में समर्थ होगी किंतु वे अपनी इस योजना में पूर्णत: असफल रहे।


जर्मनी की सेनाएँ अपनी संशोधित श्लीफ़ेन योजना के अनुसार बेल्जियम से होकर मई, 1940 में कूच करने लगी। बेल्जियम से होकर कूच करते समय जर्मन सेनाएँ फ्राँस की पूर्वी सीमा पर स्थित सुदृढ़ किलों से कतराती हुई चली। बेल्जियम में लीज और नामूर के दुर्ग और उत्तरी फ्राँस के दुर्ग, जो जर्मन सेनाओं की दाहिनी टुकड़ी के कूच मार्ग में पड़ते थे, उन दुर्गों की अपेक्षा जो दूर दक्षिण तथा फ्रांस की पूर्वी सीमा पर स्थित थे, कमजोर थे। जर्मन सेनाओं ने इसका सही अनुमान लगा लिया था और इसीलिए उन्होंने एक नई विधि निकाली जिसे श्लीफ़ेन प्लान कहते हैं। उन्होंने लीज़ के निकट अलबर्ट नहर तथा म्यूजे के चौराहों पर आक्रमण किया। 24 घंटे में इबेन-इमाइल का दुर्ग विजित हो गया। समस्त संसार इस दुर्ग के विजित हो जाने पर आश्चर्यचकित हो गया क्योंकि इसकी किलाबंदी आधुनिक ढंग से हुई थी। जर्मनों की इस जीत पर पश्चिमी राष्ट्रों ने सोचा कि जर्मनों के पास कोई गुप्त अस्त्र है परंतु वास्तव में उनकी जीत की रहस्य आक्रमण में पूर्ण सामंजस्य था। प्रात:काल जर्मनों ने किले की चोटी पर अपने सैनिक उतार दिए। प्रतिशिक्षित इंजीनियरों ने तुरंत ही बारूद लगानी शुरु कर दी जिससे किले की छतरियाँ ध्वस्त की जा सकें। तोपों की नालियों में उन्होंने हथगोले भी गिरा दिए और किले के बारूदखाने में विस्फोटक पदार्थ पहुँचा दिए। इसके पूर्व कि आक्रमण की सूचना देने के लिए घँटियाँ बजें, वायुयानों द्वारा अन्य दुर्गों पर आक्रमण शुरू हो गया। वायुयानों द्वारा उतारे गए सैनिकों की सहायता के लिये पैदल सेना नौकाआैं में नदी पार कर पहुँच गई और दोनों ने मिलकर क्षण भर में लीज़ का पूरा किला घेरकर देखते ही देखते जीत लिया। गुप्त अस्त्र के साथ घर के भेदियों (फ़िफ्थ कालम) को भी इस पराजय का कारण बताया गया परंतु वास्तव में वायुसेना तथा स्थलसेना का दक्ष सहयोग ही जर्मनों की विजय का कारण था। इसी ढंग से जर्मनों ने माजिनो रेखा के उत्तरी सिरे पर सेदाँ पर भी आक्रमण किया और स्तालिन लाइन को तोड़ने में भी इसी युक्ति से काम लिया।


1944 में जर्मनी के फ़ोर्ट्रेस ऑव यूरोप की रक्षा में कंकड़ तथा लोहे द्वारा किलाबंदी पर अधिक जोर दिया गया। किलों को टीलों के एक ओर बनाया गया जिसको देखकर उस दुर्ग के अजेय होने का आभास हो। संचारण की व्यवस्था, वायुनाशक तोपों की रक्षा तथा इन किलों के पीछे पैदल सेना सहायतार्थ अवस्थित करने पर अधिक जोर दिया गया। के किले के सामने समुद्र के किनारे किनारे सुरंगें और जल तथा किनारों पर अवरोधक लगाए गए। यह स्थायी तथा मैदानी किलाबंदी का एक सम्मिलित रूप था।


द्वितीय महायुद्ध के समय कई स्थानों पर फ्रांसीसियों ने सुदृढ़ मैदानी मोर्चाबंदी की। उन्होंने बड़ी बड़ी खाइयाँ खोदी जो इतनी गहरीं थीं कि उनसे टैंक तक रोके जा सकते थे। टैंक नाशक तोपें भी इन खाइयों के सामने के भागपर अग्निवर्षा करने के लिए लगाई गई थीं। सर्वप्रथम जर्मनों ने तोपखाने तथा निचली उड़ानवाले वायुयानों द्वारा फ्रांसीसी स्थानों पर बमबारी की। इसके पश्चात्‌ टैंको ने इन लहरदार ऐंटी-टैंक खाइयों के विरुद्ध धुएँ की आड़ में बढ़ना शुरु किया। यह जान लेने के पश्चात्‌ कि टैंक नाशक तोप किस स्थान पर लगाई गई, जर्मनों ने एक टैंकों को आगे बढ़ाया जिसने टैंक नाशक तोन को टकराकर गिरा दिया और फ्रंासीसी तोपची की दृष्टि के सामने अड़कर उसके दृष्टिमार्ग को अवरुद्ध कर दिया। इस प्रकार जर्मनों ने अपने टैंको की, जो पीछे आ रहे थे, रक्षा की और वे इसी रक्षा में खाइयों तक पहुँच गए, विशेष यंत्रों द्वारा, खाइयों पर पुल बनाया और पार हो गए। फ्रंासीसियों की इस प्रकार जितनी रक्षार्थ पंक्तियाँ तथा खाइयाँ थीं वे सब जर्मन टैंक इसी विधि से पार करते गए। पार करने में फ्रंासीसियों की रक्षा दीवारों को भी अपनी भारी-भारी तोपों से चकनाचूर करते चले गए।


गुहात्मक मैदानी मोर्चाबंदी के विरुद्ध अमरीका ने मनुष्यों के स्थान पर यंत्रों का हर संभव साधन से प्रयोग की विधि अपनाई। इससे कभी कभी वायुयानों और साथ ही नौसेना द्वारा उस क्षेत्र पर बमवर्षा कुछ दिनों अथवा कुछ सप्ताह तक की जाती थी। एक बार थलसेना लड़ते लड़ते समुद्र तट तक पहुँच जाती तो वह अपने साथ तोपखाना तथा टैंक भी वहाँ तक ले जाती और दोनों की सयुंक्त शक्ति से शत्रु के मैदानी मोर्चाबंदी के स्थानों पर बमवर्षा की जाती। शत्रु इस बमवर्षा के कारण अपनी गुहारूपी खाइयों से निकलकर भागते। इसी समय पैदल सेना जंगली क्षेत्रों से होती इन गुफाओं से निकले शत्रुओं को घेरती आती और उन्हे नष्ट कर देती। इस विधि से शत्रुओं को नष्ट करने के बावजूद जापानी सैनिक अपनी गुफारूपी खाइयों से नहीं निकले। तब अमरीकियों ने टैंकों द्वारा उन खाइयों पर अग्निवर्षा की और उनके प्रवेशद्वार उड़ा दिए।


द्वितीय विश्वयुद्ध में मैदानी मोर्चाबंदी का क्रम इस प्रकार होता था : रक्षार्थ एक स्थान चुना जाता था, खाइयाँ तथा शरणस्थान बनाए जाते थे, फिर सुरंगें लगाकर तथा काँटेदार तार खींचकर शत्रु का मार्ग अवरुद्ध किया जाता था। रक्षात्मक स्थलयुद्ध में ये सब कार्य एक साथ किए जाते थे। मध्य से एक ऐंटी-टैंक खाई भी जाती थी। इस खाई के लगभग 600 गज पीछे रक्षक दल खड़ा होता था जिसमें राइलफलधारी तथा उनके पीछे तोपची खाइयों में खड़े हो जाते थे। इतनी दूरी पर इसलिए खड़े होते थे जिससे मशीनगन तथा छोटी मार्टर बंदूकों द्वारा उन शत्रुओं पर अग्निवर्षा कर सकें जो ऐंटी-टैंक खाई के उस और लगाए गए अवरोधक स्थानों पर आकर अटक गई हों। ऐंटी-टैंक खाई के बाद काँटेदार तार और मुख्य सुरंगें लगाई जाती थीं। इन सुरंगों के बाद फिर काँटेदार तार तथा सुरंगें और इसके बाद भी काँटेदार तार तथा सुरंगें रखी जातीं थीं। रक्षार्थ चुने गए स्थान तथा अवरोधक क्षेत्र में परस्पर 400 से 600 गज तक की दूरी रखी जाती थी। इस मैदानी किलाबंदी से यह लाभ था कि खाइयों में छिपे रहकर भी रक्षक दल को अपने अस्त्र शस्त्र प्रयुक्त करने की हर प्रकार से संभावना थी। अवरोधक भी, विशेषकर सुरंगें, शत्रुओं की आधारशक्ति टैंको को रोकने में बड़ी प्रभावकारी सिद्ध होती थीं।



संदर्भ ग्रंथ


  • द्विजेंद्रनाथ शुक्ल : भारतीय वास्तुशास्त्र;

  • रिज़वी : आदि तुर्क कालीन भारत;

  • तुगलक कालीन भारत, भाग 2;

  • मुगलकालीन भारत;

  • हुमायुँ;

  • फ्ख्रोमुदब्बिर: आदाबुल हर्ब वजाअत;

  • श्रफुद्दीन अली यजदी; ज़फरनामा भाग 2;

  • बाबरनामा;

  • सिडनी टॉय: ए हिस्ट्री ऑव फ़ोर्टीफ़िकेशन;

  • विलियम ए. मिशेल: आउटलाइंस ऑव द वर्ल्ड्‌ स मिलिट्री हिस्ट्री;

  • बी. एच. लिडेल हार्ट: द डेसिसिव वार्स ऑव हिस्ट्री।


इन्हें भी देखिये


  • दुर्ग


बाहरी कड़ियाँ


  • आचार्य कौटिल्य द्वारा वर्णित दुर्ग व्यवस्था

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