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  • वीरेन्द्र जैन

शिक्षक दिवस 1955 को मध्य प्रदेश के अब अशोकनगर जिले के सिरसौद गाँव में जन्म जो अब आधा जल और आधा काल के गाल में समाया हुआ है। प्राथमिक शिक्षा गाँव की मदरशाला में हुई। फिर दिल्ली में। कक्षा दस से लौकिक पढ़ाई का सिलसिला टूट गया। किशोरवय में ही जीवनयापन का जुआ अपने कंधों पर लेना पड़ा। पहली नौकरी प्रज्ञाचक्षु इन्द्रचंद्र शास्त्री जी के लिसनर (गणेश) के रूप में की। वे जो बोलते थे वह कागज पर लिखना होता था और वे जो बताते थे वह किताब पढ़कर सुनानी होती थी। वहीं से लिखने की ललक लगी। इससे पहले एक अध्यापक सजा के तौर पर बेहतर लेखन पढ़ने का सबक सिखा चुके थे। शास्त्री जी का सानिध्य बेहद लाभकारी था पर उनकी पत्नी घरेलू नौकर बनाने पर अमादा थीं। यह आभास होते ही उस नौकरी से मुक्ति ले ली। बाद उसके बहुत से काम किए। डनलोपिलो के गद्दे बेचे। उसी डीलर की दुकान में रहने के एवज में झाडाबुहारी भी की। चाय की छन्निया बनाई। दर्जियो को उनकी जरूरत का सामान सप्लाई किया। एक निब बनानेवाले कारखाने में काम किया। बिजली के तार बनाने की फैक्ट्री में हेल्परी की। सब्जीमंडी में आढतिए के लिए बोलियां लगाई।
पहले दो वर्ष महावीर विद्यापीठ में और अंतिम वर्ष लालबहादुर शास्त्री विद्यापीठ में पढ़कर शास्त्री की पढाई की। महावीर विद्यापीठ में शिक्षा के दौरान कुछ कहानियों लिखीं। दिल्ली के पहले हिन्दी सान्ध्य दैनिक दूरंदेश के प्रकाशन में अहम भूमिका निभाई। उसमें एक व्यंग्य कालम लिखने, उसके प्रूफ पढ़ने से लेकर उसे बेचने के लिए केन्द्रीय सचिवालय बस स्टैंड पर फेरी लगाने का दायित्व भी निभाया। इसी बीच भारतीय ज्ञानपीठ में नौकरी लग गई। वहां वेतन बहुत कम मिलता था सो कुछ थीसिस टाइप किए। दवाइयां सप्लाई की। पर्यटकों को लुभाकर पर्यटन बसों तक पहुंचा कर कमीशन पाया।
भारतीय ज्ञानपीठ में काम के दौरान बेहतर से बेहतर लेखन को पढ़ने के अनंत और अवाध अवसर मिले। साहित्य की समझ बड़ी। ज्ञानपीठ में रहते हुए शिक्षा शास्त्री और जैनदर्शन से आचार्य प्रथम वर्ष की परीक्षा उत्तीर्ण की। ज्ञानपीठ के बाद जैनेन्द्र कुमार के पूर्वोदय प्रकाशन में प्रकाशन और विक्रय अधिकारी हुए। इस नौकरी के दौरान जैनेन्द्र जी का लिसनर होने का अवसर मिला। उनका बोला हुआ बहुत कुछ कागज पर उतारने के साथ ही उनसे दशार्क उपन्यास का पुनर्लेखन आरंभ करवाया। किन्हीं कारणों से यह सिलसिला टूट गया। दशार्क को फिर तीसरी बार लिखवाने आरंभ किया सारिका में नौकरी के दौरान जहां वह धारावाहिक छपा।
बहरहाल, पूर्वोदय में नौकरी के दौरान ही पहला उपन्यास लिखकर पूरा किया। यही उपन्यास छपवाने के लिए राजकमल प्रकाशन में जाना हुआ जहां उपन्यास तो विचारार्थ रख ही लिया गया इन्हें नौकरी पर भी रख लिया गया। राजकमल से उपन्यास तो नहीं छपा, इस बीच लिखे गए दूसरे उपन्यास सुरेखा-पर्व के अन्यत्र छपने पर नौकरी जरूर छोडनी पड़ी। तब प्रकाशन जगत को अंतिम नमस्कार कर पत्रकारिता की ओर कदम बढ़ाए। दिल्ली प्रेस की सरिता,मुक्ता में उप संपादक हुए। गृहशोभा की रूपरेखा तैयार की। यह नौकरी भी लेखन के चलते छूटी। तब टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह की कथा पत्रिका सारिका में बतौर उप संपादक काम आरंभ किया। फिर यहीं के सान्ध्य टाइम्स में, फिर यहीं के नवभारत टाइम्स से बतौर मुख्यउप संपादक स्वेच्छा से सेवामुक्त हुए। बाद उसके तीन वर्ष एस.चंद समूह के मधुबन एजुकेशनल बुक्स में भारतीय भाषाओं के प्रबंध संपादक रहे।
वीरेन्द्र जैन की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं: सुरेखा-पर्व, अनातीत, प्रतीक :एक जीवनी, शब्दबध, सबसे बड़ा सिपहिया, रुका हुआ फैसला, उनके हिस्से का विश्वास,प्रतिदान, शुभस्य शीघ्रम्, डूब, पार, पंचनामा, पहला सप्तक, तलाश, दे ताली, गैल और गन, तीन अतीत, सुखफरोश, तीन दिन दो रातें (सभी उपन्यास या उपन्यास-संग्रह); बायीं हथेली का दर्द, मैं वही हूँ, बीच के बारह बरस, भार्या (चारों कहानी-संग्रह);रावण की राख, किस्सा मौसमी प्रेम का, पटकथा की कथा, रचना की मार्केटिंग, बहस बीच में (पांचों व्यंग्य संग्रह); तुम भी हंसो, बात में बात में बात, मनोरंजक खेल कथाएं, खेलप्रेमी मामाश्री, हास्य कथा बत्तीसी, खोजा के कारनामे, खोजा बादशाह, किस्से नसरूद्दीन के (सभी बच्चों और किशोरों के लिए कहानियों और किस्सों के संग्रह);तिगडमबाज और साधू दुखभंजन, पितृभक्त कुणाल, महादानी कर्ण, तीन चित्रकथाएं, खेल पुरस्कार उपहार (सभी कॉमिक्स); अभिवादन और खेद सहित (फुटकर गद्य); ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता, धूप की लपेट और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ग्रंथावली के नौ खंड (संपादित); एनसीईआरटी के लिए कक्षा नौ और दस बी कोर्स की पाठ्यपुस्तकों स्पर्श भाग 1,2, संचयन भाग 1,2; मधुबन के लिए कक्षा छह सात आठ की पाठ्यपुस्तक वितान, कक्षा तीन से आठ के लिए उत्कर्ष और गरिमा का संपादन और सह-लेखन, बातों की फुलवारी भाग 1-8 का संपादन और सह-लेखन।
वीरेन्द्र जैन के साहित्य पर विभिन्न विश्वविद्यालयों में अब तक छप्पन शोधकार्य हो चुके हैं। इनमें से दस पुस्तक रूप में प्रकाशित हो चुके हैं।
रचनाकर्म के लिए वीरेन्द्र जैन को अब तक कई साहित्यिक पुरस्कार पाने का गौरव हासिल हो चुका है : शब्द-बध (1987) के लिए मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से का वागीश्वरी पुरस्कार, सबसे बड़ा सिपहिया (1988) के लिए हिन्दी अकादमी दिल्ली का साहित्यिक कृति पुरस्कार, डूब की पाण्डुलिपि पर वाणी का 1990 का प्रेमचंद महेश सम्मान,पार (1994) के लिए श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार, डूब (1991) के लिए मध्यप्रदेश साहित्य परिषद (प्रदेश की साहित्य अकादमी) का अखिल भारतीय वीरसिंह देव पुरस्कार, पंचनामा (1996) के लिए पहला निर्मल पुरस्कार और उपन्यास के क्षेत्र में निरंतर और रचनात्मक योगदान के लिए 1989 में अखिल भारतीय नेताजी सुभाष स्मृति पुरस्कार।
संप्रति: पत्नी मणिकांता, बेटियों भूमिका, इति, नातियों - स्पर्श, आर्जव और सार्थक की आत्मीयता का सुखभोग और नये रचनाकर्म में तल्लीन।


 हिन्दी गद्यकार







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