नन्दा देवी राजजात सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ दिक्चालन सूचीGMVN preparing for Nanda devi Raj Jat yatra in 2012गढ़वाल पर्यटन की वेबसाइट पर राजजात बारे जानकारीघुघूती.कॉम पर जात बारे जानकारीनन्दा देवी जात बारे यात्रा जानकारीमेरा पहाड़ डॉट कॉम में श्री नन्दा राजजात की कहानी। संसं

उत्तराखण्ड के तीर्थ


भारतउत्तरांचलनन्दा देवी20142024





नन्दा देवी राजजात भारत के उत्तरांचल राज्य में होने वाली एक नन्दा देवी की एक धार्मिक यात्रा है। यह उत्तराखंड के कुछ सर्वाधिक प्रसिद्ध सांस्कृतिक आयोजनों में से एक है। यह लगभग १२ वर्षों के बाद आयोजित होती है। अन्तिम जात सन् 2014 में हुयी थी। अगली राजजात सन् 2024 में होगी[1]


लोक इतिहास के अनुसार नन्दा गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ कुँमाऊ के कत्युरी राजवंश की ईष्टदेवी थी। इष्टदेवी होने के कारण नन्दादेवी को राजराजेश्वरी कहकर सम्बोधित किया जाता है। नन्दादेवी को पार्वती की बहन के रूप में देखा जाता है परन्तु कहीं-कहीं नन्दादेवी को ही पार्वती का रूप माना गया है। नन्दा के अनेक नामों में प्रमुख हैं शिवा, सुनन्दा, शुभानन्दा, नन्दिनी। पूरे उत्तराँचल में समान रूप से पूजे जाने के कारण नन्दादेवी के समस्त प्रदेश में धार्मिक एकता के सूत्र के रूप में देखा गया है। रूपकुण्ड के नरकंकाल, बगुवावासा में स्थित आठवीं सदी की सिद्ध विनायक भगवान गणेश की काले पत्थर की मूर्ति आदि इस यात्रा की ऐतिहासिकता को सिद्ध करते हैं, साथ ही गढ़वाल के परंपरागत नन्दा जागरी (नन्दादेवी की गाथा गाने वाले) भी इस यात्रा की कहानी को बयाँ करते हैं। नन्दादेवी से जुडी जात (यात्रा) दो प्रकार की हैं। वार्षिक जात और राजजात। वार्षिक जात प्रतिवर्ष अगस्त-सितम्बर मॉह में होती है। जो कुरूड़ के नन्दा मन्दिर से शुरू होकर वेदनी कुण्ड तक जाती है और फिर लौट आती है, लेकिन राजजात 12 वर्ष या उससे अधिक समयांतराल में होती है। मान्यता के अनुसार देवी की यह ऐतिहासिक यात्रा चमोली के कंसुवा से शुरू होती है और कुरूड़ के मन्दिर से भी दशोली और बधॉण की डोलियाँ राजजात के लिए निकलती हैं। इस यात्रा में लगभग २५० किलोमीटर की दूरी, कंसुवा से होमकुण्ड तक पैदल करनी पड़ती है। इस दौरान घने जंगलों पथरीले मार्गों, दुर्गम चोटियों और बर्फीले पहाड़ों को पार करना पड़ता है।


अलग-अलग रास्तों से ये डोलियाँ यात्रा में मिलती है। इसके अलावा गाँव-गाँव से डोलियाँ और छतौलियाँ भी इस यात्रा में शामिल होती है। कुमाऊँ (कुमॉयू) से भी अल्मोडा, कटारमल और नैनीताल से डोलियाँ नन्दकेशरी में आकर राजजात में शामिल होती है। कंसुवा से शुरू हुई इस यात्रा का दूसरा पड़ाव नौटी है। फिर यात्रा लौट कर कंसुवा आती है। इसके बाद नौटी, सेम, कोटी, भगौती, कुलसारी, चैपडों, लोहाजंग, वाँण, बेदनी, पातर नचौणियाँ से विश्व-विख्यात रूपकुण्ड, शिला-समुद्र, होमकुण्ड से चनण्याँघट (चंदिन्याघाट), सुतोल से घाट होते हुए नन्दप्रयाग और फिर नौटी आकर यात्रा का चक्र पूरा होता है। यह दूरी करीब 280 किलोमीटर है।


इस राजजात में चौसिंग्या खाडू़ (चार सींगों वाला भेड़) भी शामिल किया जाता है जोकि स्थानीय क्षेत्र में राजजात का समय आने के पूर्व ही पैदा हो जाता है, उसकी पीठ पर रखे गये दोतरफा थैले में श्रद्धालु गहने, श्रंगार-सामग्री व अन्य हल्की भैंट देवी के लिए रखते हैं, जोकि होमकुण्ड में पूजा होने के बाद आगे हिमालय की ओर प्रस्थान कर लेता है। लोगों की मान्यता है कि चौसिंग्या खाडू़ आगे बिकट हिमालय में जाकर लुप्त हो जाता है व नंदादेवी के क्षेत्र कैलाश में प्रवेश कर जाता है।


वर्ष 2000 में इस राजजात को व्यापक प्रचार मिला और देश-विदेश के हजारों लोग इसमें शामिल हुए थे। राजजात उत्तराखंड की समग्र संस्कृति को प्रस्तुत करता है। इसी लिये 26 जनवरी 2005 को उत्तरांचल राज्य की झांकी राजजात पर निकाली गई थी। पिछले कुछ वर्षों से पयर्टन विभाग द्वारा रूपकुण्ड महोत्व का आयोजन भी किया जा रहा है। स्थानीय लोगों ने इस यात्रा के सफल संचालन हेतु श्री नन्दादेवी राजजात समिति का गठन भी किया है। इसी समिति के तत्त्वाधान में नन्दादेवी राजजात का आयोजन किया जाता है। परम्परा के अनुसार वसन्त पंचमी के दिन यात्रा के आयोजन की घोषणा की जाती है। इसके पश्चात इसकी तैयारियों का सिलसिला आरम्भ होता है। इसमें नौटी के नौटियाल एवं कासुवा के कुवरों के अलावा अन्य सम्बन्धित पक्षों जैसे बधाण के १४ सयाने, चान्दपुर के १२ थोकी ब्राह्मण तथा अन्य पुजारियों के साथ-साथ जिला प्रशासन तथा केन्द्र एवं राज्य सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा मिलकर कार्यक्रम की रुपरेखा तैयार कर यात्रा का निर्धारण किया जाता है।


मान्यताओं के अनुसार राजजात तब होती है, जब देवी का दोष (प्रकोप) लगने के लक्षण दिखाई देते हैं। ध्याणी (विवाहित बेटी-बहन) भूमिया देवी ऊफराई की पूजा करती है इसे मौड़वी कहा जाता है। ध्याणीयां यात्रा निकालती है, जिसे डोल जातरा कहा जाता है। कासुंआ के कुंवर (राज वंशज) नौटी गाँव जाकर राजजात की मनौती करते हैं। कुंवर रिंगाल की छतोली (छतरी) और चौसिंग्या खाडू़ (चार सींगों वाला भेड़) लेकर आते हैं। चौसिंगा खाडू का जन्म लेना राजजात की एक खास बात है। नौटियाल और कुँवर लोग नन्दा के उपहार को चौसिंगा खाडू की पीठ पर होमकुण्ड तक ले जाते हैं। वहाँ से खाडू अकेला ही आगे बढ़ जाता है। खाडू के जन्म साथ ही विचित्र चमत्कारिक घटनाये शुरु हो जाती है। जिस गौशाला में यह जन्म लेता है उसी दिन से वहाँ शेर आना प्रारम्भ कर देता है और जब तक खाडू़ का मालिक उसे राजजात को अर्पित करने की मनौती नहीं रखता तब तक शेर लगातार आता ही रहता है।


राजजात के नाम पर जिन्दा सामन्तवाद
- जयसिंह रावत-
चार सींगों वाले मेंढे (चौसिंग्या खाडू) के नेतृत्व में चलने वाली दुनियां की दुर्गमतम्, जटिलतम और विशालतम् धार्मिक पैदल यात्राओं में सुमार नन्दा राजजात अगामी 29 अगस्त से शुरू होने जा रही है। बसन्त पंचमी के अवसर पर घोषित कार्यक्रम के अनुसार पूरे 19 दिन तक चलने के बाद यह यात्रा 16 सितम्बर को सम्पन्न होगी। इस हिमालयी महाकुम्भ में समय के साथ धार्मिक परम्पराएं तो बदलती रही हैं मगर सामन्ती परम्पराएं कब बदलेंगी, यह सवाल मुंह बायें खड़ा हो कर लोकतंत्रकामियों को चिढ़ाता जा रहा है।
बद्रीनाथ के कपाटोद्घाटन की ही तरह चमोली गढ़वाल के कासुवा गांव के कुंवरों और नौटी गांव के उनके राजगुरू नौटियालों ने भी इस बसन्त पंचमी को नन्दादेवी राजजात के कार्यक्रम की घोषणा कर दी। कांसुवा गांव के ठाकुर स्वयं को सदियों तक गढ़वाल पर एकछत्र राज करने वाले पंवार वंश के एक राजा अजयपाल के छोटे भाई के वंशज मानते हैं और इसीलिये वे राजा के तौर पर इस हिमालयी धार्मिक पदयात्रा का नेतृत्व करने के साथ ही उसे अपना निजी कार्यक्रम मानते हैं। टिहरी राजशाही के वंशज भी बसन्त पंचमी के दिन हर साल बद्रीनाथ के कपाटोद्घाटन की तिथि तय करते हैं। कुवरों और नौटियालों द्वारा घोषित कार्यक्रम के अनुसार यह यात्रा 29 अगस्त को कंसुवा से चेलगी और हिमालयी क्षेत्र में 19 पड़ावों के बाद आगामी 16 सितम्बर को वापस लौट जायेगी। इस जोखिमपूर्ण यात्रा के साक्षी बनने के लिये देश विदेश से लोग पहुंचते हैं। लेकिन हैरानी की बात यह है कि जिस कुरूड़ गांव के प्राचीन मंन्दिर से नन्दा देवी की डोली चलनी है उस मंदिर के पुजारियों और हकहुकूकधारियों को दूध की मक्खी की तरह अलग फेंका गया है। राज्य सरकार भी धार्मिक भावनाओं और प्राीन परम्पराओं के बजाय सामन्ती व्यवस्था के साथ दृढ़ता से खड़ी नजर आ रही है।
राजजात के लिये उत्तराखण्ड सरकार सहित आयोजन समिति और अन्य सम्बन्धित पक्षों ने तैयारियां शुरू कर दी हैं। इसके साथ ही इस ऐतिहासिक यात्रा का नेतृत्व करने चौसिंग्या खाडू की तलाश भी शुरू हो गयी है। यात्रा से पहले इस तरह का विचित्र मेंढा चांदपुर और दशोली पट्टियों के गावों में से कहीं भी जन्म लेता रहा है। विशेष कारीगरी से बनीं रिंगाल की छंतोलियों, डोलियों और निशानों के साथ लगभग 200 स्थानीय देवी देवता इस महायात्रा में शामिल होते हैं। प्राचीन प्रथानुसार जहां भी यात्रा का पड़ाव होता है उस गांव के लोग यात्रियों के लिये अपने घर खुले छोड़ कर स्वयं गोशालाओं या या अन्यत्र रात गुजारते हैं। समुद्रतल से 13200 फुट की उंचाई पर स्थित इस यात्रा के गन्तव्य होमकुण्ड के बाद रंग बिरंगे वस्त्रों से लिपटे इस मेंढे को अकेले ही कैलाश की ओर रवाना कर दिया जाता है। यात्रा के दौरान पूरे सोलहवें पड़ाव तक यह खाडू या मेंढा नन्दा देवी की रिंगाल से बनी छंतोली (छतरी) के पास ही रहता है। समुद्रतल से 3200 फुट से लेकर 17500 फुट की ऊंचाई क पहुंचने वाली यह 280 किमी लम्बी पदयात्रा 19 पड़ावों से गुजरती है। वाण यात्रा का अन्तिम गाँव है। प्राचीन काल में इसके 22 पड़ाव होने के भी प्रमाण हैं। वाण से आगे की यात्रा दुर्गम होती हैं और साथ ही प्रतिबंधित एवं निषेधात्मक भी हो जाती है।
आयोजन समिति के सचिव और राजगुरू के रूप में नौटियाल ब्राह्मणों के प्रतिनिधि के रूप में कार्य कर रहे भुवन नौटियाल तथा उनके पिता देवराम नौटियाल के लेखों के अनुसार वाण से कुछ आगे रिणकीधार से चमड़े की वस्तुएँ जैसे जूते, बेल्ट आदि तथा गाजे-बाजे, स्त्रियाँ-बच्चे, अभक्ष्य पदार्थ खाने वाली जातियाँ इत्यादि राजजात में निषिद्ध हो जाते हैं। अभक्ष्य खाने वाली जातियों का तात्पर्य छिपा नहीं है। इस यात्रा में अब तक अनुसूचितजाति के लोगों की हिस्सेदारी की परम्परा नहीं रही है और राज्य सरकार की इस आयोजन में भागीदारी सीधे-सीधे न केवल सामन्ती व्यवस्था को बल्कि छुआछूत की बुराई को भी मान्यता देती है।


खतरनाक पहाड़ी चढ़ाई वाले रास्तों से गुजरने वाली यह दुर्गम यात्रा न केवल पैदल तय करनी होती है बल्कि 53 किमी तक इसमें नंगे पांव भी चलना होता है। हालांकि सन् 2000 की राजजात यात्रा में काफी परिवर्तन आ गये है। पिछली बार इसमें कुछ साहसी महिलाऐं भी शामिल हुयी हैं। मगर अनुसूचित जाति के लोग इसमें शामिल होने का साहस अब तक नहीं जुटा पाये। इतिहासकारों के अनुसार धार्मिक मनोरथ की पूर्ति और इस यात्रा को सफल बनाने के लिये प्राचीनकाल में नरबलि की प्रथा थी जो कि अंग्रेजी हुकूमत आने के बाद 1831 में प्रतिबन्धित कर दी गयी। उसके बाद अष्टबलि की प्रथा काफी समय तक चलती रही। इतिहासकार डॉ॰ शिवप्रसाद डबराल और डॉ॰ शिवराज संह रावत ”निसंग” के अनुसार नरबलि के बाद इस यात्रा में 600 बकरियों और 25 भैंसों की बलि देने की प्रथा चलती रही मगर इसे भी 1968 में समाप्त कर दिया गया। नन्दा देवी राजजात के बारे में उत्तराखण्ड के विभिन्न खण्डों में गढ़वाल का इतिहास लिखने वाले प्रख्यात इतिहासकार डॉ॰ शिप्रसाद डबराल ने ”उत्तराखण्ड यात्रा दर्शन” में लिखा है कि नन्दा महाजाति खसों की आराध्य देवी है। ब्रिटिश काल से पहले प्रति बारह वर्ष नन्दा को नरबलि देने की प्रथा थी। बाद में इस प्रथा को बन्द कर दिया गया मगर ”दूधातोली प्रदेश में भ्रमण के दौरान मुझे सूचना मिली कि उत्तर गढ़वाल के कुछ गावों में अब नर बलि ने दूसरा रूप धारण कर लिया। प्रति 12 वर्ष में उन गावों के सयाने लोग एकत्र हो कर किसी अतिवृद्ध को नन्दा देवी को अर्पण करने के लिये चुनते हैं। उचित समय पर उसके केश, नाखून काट दिये जाते हैं। उसे स्नान करा कर तिलक लगाया जाता है, फिर उसके सिर पर नन्दा के नाम से ज्यूंदाल (चांवल, पुष्प, हल्दी और जल मिला कर) डाल देते हैं। उस दिन से वह अलग मकान में रहने लगता है और दिन में एक बार भोजन करता है। उसके परिवार वाले उसकी मृत्यु के बाद होने वाले सारे संस्कार पहले ही कर डालते हैं। वह एक वर्ष के अन्दर ही मर जाता है।“ 

हिमालयी जिलों का गजेटियर लिखने वाले ई.टी. एटकिन्सन, के साथ ही अन्य विद्वान एच.जी.वाल्टन, जी.आर.सी.विलियम्स, के साथ ही स्थानीय इतिहासकार ड0 शिव प्रसाद डबराल, डॉ॰ शिवराज सिंह रावत ”निसंग“, यमुना दत्त वैष्णव, पातीराम परमार एवं राहुल सांकृत्यायन आदि के अनुसार नन्दा याने कि पार्वती हिमालय पुत्री है और उसका ससुराल भी कैलाश माना जाता है। इसलिये वह खसों या खसियों की प्राचीनतम् आराध्य देवी है। पंवार वंश से पहले कत्यूरी वंश के शासनकाल से इस यात्रा के प्रमाण हैं। डॉ॰ डबराल आदि के अनुसार रूपकुण्ड दुर्घटना सन् 1150 में हुयी थी जिसमें राजजात में शामिल होने पहुंचे कन्नौज नरेश जसधवल या यशोधवल और उनकी पत्नी रानी बल्लभा की सुरक्षा और मनोरंजन आदि के लिये सेकड़ों की संख्या में साथ लाये हुये दलबल की मौत हो गयी थी। जिनके कंकाल आज भी रूप कुण्ड में बिखरे हुये हैं।
नौटी में राजजात के सन् 1843, 1863, 1886, 1905, 1925, 1951, 1968 एवं 1987 में आयोजित होने के अभिलेख उपलब्ध हैं। इससे स्पष्ट होता है कि प्रचलित मान्यतानुसार यह यात्रा हर 12 साल में नहीं निकलती रही है। कुरूड़ से प्राप्त अभिेलेखों में 1845 तथा 1865 की राजजातों का विवरण है। कुरूड़ के पुजारी और अधिकांश इतिहासकार नन्दा को पंवारों की नहीं बल्कि खसों की प्राचीनतम तीर्थयात्रा मानते हैं। इसी आधार पर आयुद्धजीवी खसों की आराध्य कुरूड़ की नन्दा देवी की डोली ही इस राजजात का नेतृत्व करती रही है।
इस पैदल यात्रा में उच्च हिमालय की ओर चढ़ाई चढ़ते जाने के साथ ही यात्रियों का रोमांच भी बढ़ता जाता है। इसका पहला पड़ाव 10 किलोमीटर पर ईड़ा बधाणी है। उसके बाद दो पड़ाव नौटी में होते हैं। नौटी के बाद सेम, कोटी, भगोती, कुलसारी, चेपड़ियूं, नन्दकेशरी, फल्दिया गांव, मुन्दोली, वाण, गैरोलीपातल, पातरनचौणियां होते हुये यात्रा शिलासमुद्र होते हुये अपने गन्तव्य होमकुण्ड पहुंचती है। इस कुण्ड में पिण्डदान और पूजा अर्चना के बाद चौसिंग्या खाडू को हिमालय की चोटियों की ओर विदा करने के बाद यात्रा नीचे उतरने लगती है। उसके बाद यात्रा सुतोल, घाट और नौटी लौट आती है। इस यात्रा के दौरान लोहाजंग ऐसा पड़ाव है जहां आज भी बड़े पत्थरों और पेड़ों पर लोहे के तीर चुभे हुये हैं। कुछ तीर संग्रहालयों के लिये निकाल लिये गये हैं। इस स्थान पर कभी भयंकर युद्ध होने का अनुमान लगाया जाता है। इसी मार्ग पर 17500 फुट की ऊंचाई पर ज्यूंरागली भी है जिसे पार करना बहुत ही जोखिम का काम है। इतिहासकार मानते हैं कि कभी लोग स्वर्गारोहण की चाह में इसी स्थान से महाप्रयाण के लिये नीचे रूपकुण्ड की ओर छलांग लगाते थे। यमुना दत्त वैष्णव ने इसे मृत्यु गली की संज्ञा दी है। यहां से नीचे छलांग लगाने वालों के साथ ही दुर्घटना में मारे गये सेकड़ों यात्रियों के कंकाल नीचे रूपकुण्ड में मिले हैं जिनकी पुष्टि डीएनए से हुयी है। इसके बाद यात्रा शिला समुद्र की ओर नीचे उतरती है। शिला समुद्र का सूर्योदय का दृष्य आलोकिक होता है। वहां से सामने की नन्दाघंुघटी चोटी पर सूर्य की लौ दिखने के साथ ही तीन दीपकों की लौ आलोकिक नजारा पेश करती है।
राजजात के मार्ग में हिमाच्छादित शिखरों से घिरी रूपकुण्ड झील है जिसके रहस्यों को सुलझाने के लिये भारत ही नहीें बल्कि दुनियां के कई देशों के वैज्ञानिक दशकों से अध्ययन कर रहे हैं। कोई रोक टोक न होने के कारण समुद्रतल से 16200 फुट की उंचाई पर स्थित रूपकुण्ड झील से देश विदेश के वैज्ञानिक बोरों में भर कर अतीत के रहस्यों का खजाना समेटे हुये ये नर कंकाल और अन्य अवशेष उठा कर ले गये हैं। फिर भी मानव बस्तियों से बहुत ऊपर इस झील के किनारे अब भी कई कंकाल पड़े हैं। कुछ कंकालों पर मांस तक पाया गया है। कंकालों के साथ ही आभूषण, राजस्थानी जूते, पान सुपारी, के दाग लगे दांत, शंख, शंख की चूड़ियां आदि सामग्री बिखरी पड़ी है। इन सेकड़ों कंकालों का पता सबसे पहले 1942 में एक वन रेंजर ने लगाया था। इस झील के कंकालों पर सबसे पहले 1957 में अमरीकी विज्ञानी डॉ॰ जेम्स ग्रेफिन ने अध्ययन किया था। उस समय उसने इन कंकालों की उम्र लगभग 650 बताई थी। सन् 2004 में नेशनल जियोग्राफिक चैनल द्वारा ब्रिटेन और जर्मनी की प्रयोगशालाओं में कराये गये इन कंकालों के परीक्षण से जो बात चौंकाने वाली सामने आई है यह है कि ये कंकाल 9वीं सदी के हैं तथा ये लगभग सभी एक ही समय में मरे हुये लोगों के हैं। इनमें स्थानीय लोगों के कंकाल बहुत कम हैं। बाकी लगभग सभी एक ही प्रजाति के हैं। इनमें दो खोपड़ियां ऐसी भी मिली हैं जो कि महाराष्ट्र की एक खास ब्राह्मण जाति के डीएनए तथा सिर के कंकाल की बनावट से मिलते हैं। चैनल इस नतीजे पर पहुंचा है कि ये कंकाल यशोधवल, उसकी रानियों, नर्तकियों, सैनिकों, सेवादारों या कहारों और साथ में चल रहे दो ब्राह्मणों के रहे होंगे।
सन् 1947 में भारत के आजाद होने के तत्काल बाद 500 से अधिक रजवाड़े लोकतंत्र की मुख्य धारा में विलीन हो गये। गढ़वाल नरेश मानवेन्द्र शाह की बची खुची टिहरी रियासत भी 1949 में भारत संघ में विलीन हो गयी। राजशाही के जमाने से चल रही सामन्ती व्यवस्था के थोकदार, पदान, सयाणे और कमीण आदि भी उत्तरप्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम 1950 के लागू हो जाने और नयी पंचायती राज व्यवस्था के लागू हो जाने के बाद अप्रासंगिक हो गये। मगर सेकड़ों साल पहले के राजा के छोटे भाई की सत्ता आज भी कायम है। एक गांव के लोगों के पुरखों का सभी यात्रियों से तर्पण कराने पर भी सवाल उठने लगे हैं। शिवराज सिंह रावत आदि इतिहासकरों के अनुसार राजजात का मतलब सामन्ती यात्रा या राजा की यात्रा न हो कर राजराजेश्वरी की यात्रा से है। इस क्षेत्र में नन्दा देवी को राजराजेश्वरी के नाम से भी पुकारा जाता है। सामन्ती परम्परा के समर्थकों का दावा है कि कांसुवा गांव के लोग गढ़वाल नरेश अजय पाल के बंशज हैं। वे मानते हैं कि राजा ने जब चांदपुर गढ़ी से राजधानी बदल दी तो कांसुवा में रहने वाला उसका छोटा भाई वहीं रह गया। इसलिये उस गांव के लोग अपनी जाति कुँवर लिखते हैं। भारत के किसी भी नागरिक को अपनी जाति कुछ भी लिखने की आजादी है। कोई स्वयं को शहंशाह भी लिख सकता है, लेकिन वह शहंशाह हो नहीं जाता है। इस यात्रा के सर्वेसर्वा स्वयं को राजकुंवर लिख रहे हैं तो उनको इसकी भी आजादी है मगर उन्हें राजकुमार की तरह प्रजा से पेश आने की आजादी नहीं है।
सामान्यतः एक ही माता से जन्में राजकुमार इस तरह राजपरिवार छोड़ कर गांव में खेती करने या कराने के लिये नहीं रुकते। वहां रुकने वाले राजकुँवर का नाम भी कोई नहीं जानता। वैसे भी राजाओं की कई तरह की पत्नियां होती थीं और सभी तरह की पत्नियों या उप पत्नियों से उत्पन्न राजा की सन्तानें राजकंुवर नहीं होती थी। इतिहासवेत्ता कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार के अनुसार अजयपाल पंवार वंशीय राजाओं की कड़ी में 37 वां राजा था। पण्डित हरिकृष्ण रतूड़ी द्वारा लिखे गये गढ़वाल के इतिहास के अनुसार अजयपाल ने सन् 1512 में चांदपुर गढ़ी से देवलगढ़ में राजधानी स्थान्तरित की थी। उत्तराखण्ड के कई बुद्धिजीवी लगभग 500 साल पहले के किसी राजा के भाई के कुछ बंशजों द्वारा अब भी स्वयं को राजकुंवर बताये जाने को अतार्किक और सामन्ती सोच बताते हैं। उनका मानना है कि अजयपाल से लेकर अन्तिम राजा मानवेन्द्र शाह तक हजारों राजकुमार पैदा हुये होंगे और आज उनके वंशजों की संख्या लाखों में हो गयी होगी। मगर उनमें से कोई भी स्वयं को राजकुंवर नहीं कहलाता और ना ही क्षेत्र के अन्य लोगों से राजा की तरह बरताव करता है। महाराजा मानवेन्द्र शाह के मौसेरे भाई या परिवार के अन्य भाई भी स्वयं को राजकंुवर नहीं बताते। वास्तव में यह कैसे सम्भव है कि चांदपुर गढ़ी छोड़ने के बाद पैदा होने वाले राजाओं के भाई पैदा हुये ही न हों। दरअसल राजमहल से दूरी बढ़ने के साथ ही कालान्तर में पंवार वंशीय लोगों ने कालान्तर में अपनी जाति बर्तवाल, पंवार, परमार, रावत और कंुवर आदि रख दी दी। हिमालयी जिलों के गजेटियर में ईटी एटकिंसन ने कुछ विद्वानों द्वारा संकलित गढ़वाल नरेशों की सूची दी गयी है। इनमें हार्डविक की सूची में 61 राजाओं में से अजयपाल का नाम कहीं नहीं है। हार्डविक ने कुछ सूरत सिंह, रामदेव, मंगलसेन, चिनमन, रामनारायण, प्रेमनाथ, रामरू और फतेह शाह जैसे कई नाम दिये हैं जिससे यह पता नहीं चलता कि इन राजाओं का सम्बन्ध एक ही वंश रहा होगा। बेकट की सूची में राजाओं की श्रृंखला में प्रद्युम्न शाह तक 54 नाम दिये गये हैं। जिनमें अजयपाल का नाम 37वें स्थान पर है। विलियम्स द्वारा संकलित सूची में अजयपाल का नाम 35 वें स्थान पर है। ऐटकिंन्सन द्वारा अल्मोड़ा के एक पण्डित से हासिल सूची में अजयपाल का नाम 36 वें स्थान पर है। स्वयं एटकिंसन ने कहा है कि ये वे राजा थे जिन्होंने कुछ प्रसिद्धि हासिल की या कुछ खास बातों के लिये इतिहास में दर्ज हो गये। वरना उस दौरान गढ़वाल में इनके अलावा भी कई अन्य राजा हुये होंगे।
राजजात को सामन्ती स्वरूप देने और स्वयं को अब भी राजा मान कर इस धार्मिक आयोजन पर बर्चस्व को लेकर कुरूड़ के पुजारी उत्तराखण्ड की सरकार और उसके संरक्षण में चलने वाली सामन्ती राजजात आयेजन समिति से नाखुश है। इससे पहले पूरे 19 साल बाद सन् 1987 में आयोजित राजजात में भी कांसुवा और नौटी की नन्दा देवी की जात तथा कुरूड़ की नन्दा देवी की जात अलग-अलग चली है। उस समय भी नौटी और कांसुवा वालों की राजजात सरकार द्वारा वित्त पोषित थी और उसके पीछे चल रही कुरूड़ की जात परम्पराओं और आस्थाओं द्वारा पोषित थी। यह प्राचीन धार्मिक आयोजन सामन्तवाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद में फंस जाने के कारण यात्रा की सफलता पर आशंकाऐं खड़ी होने लगी हैं।




-जयसिंह रावत
पत्रकार
ई- 11 फें्रण्ड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल- 09412324999
रंलेपदहीतंूंज/हउंपसण्बवउ



सन्दर्भ




  1. GMVN preparing for Nanda devi Raj Jat yatra in 2012



बाहरी कड़ियाँ


  • गढ़वाल पर्यटन की वेबसाइट पर राजजात बारे जानकारी

  • घुघूती.कॉम पर जात बारे जानकारी

  • नन्दा देवी जात बारे यात्रा जानकारी


  • मेरा पहाड़ डॉट कॉम में श्री नन्दा राजजात की कहानी।










Popular posts from this blog

कुँवर स्रोत दिक्चालन सूची"कुँवर""राणा कुँवरके वंशावली"

Why is a white electrical wire connected to 2 black wires?How to wire a light fixture with 3 white wires in box?How should I wire a ceiling fan when there's only three wires in the box?Two white, two black, two ground, and red wire in ceiling box connected to switchWhy is there a white wire connected to multiple black wires in my light box?How to wire a light with two white wires and one black wireReplace light switch connected to a power outlet with dimmer - two black wires to one black and redHow to wire a light with multiple black/white/green wires from the ceiling?Ceiling box has 2 black and white wires but fan/ light only has 1 of eachWhy neutral wire connected to load wire?Switch with 2 black, 2 white, 2 ground and 1 red wire connected to ceiling light and a receptacle?

चैत्य भूमि चित्र दीर्घा सन्दर्भ बाहरी कडियाँ दिक्चालन सूची"Chaitya Bhoomi""Chaitya Bhoomi: Statue of Equality in India""Dadar Chaitya Bhoomi: Statue of Equality in India""Ambedkar memorial: Centre okays transfer of Indu Mill land"चैत्यभमि